बिहार विधानसभा चुनावों का बिगुल बजने से पहले ही राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। शनिवार को मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार, निर्वाचन आयुक्त सुखबीर सिंह संधू और विवेक जोशी की मौजूदगी में चुनाव आयोग ने सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ एक अहम बैठक की। इस बैठक में बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस, एलजेपी (राम विलास), सीपीआई(एमएल) समेत अन्य दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए। सभी ने अपनी-अपनी मांगें और रणनीतियां आयोग के सामने रखीं। जहां जेडीयू ने एक ही चरण में मतदान कराने का सुझाव दिया, वहीं बीजेपी ने भी अधिकतम दो चरणों में चुनाव संपन्न कराने की मांग की। दूसरी ओर सीपीआई(एमएल) और कुछ अन्य दलों ने दो चरणों में वोटिंग की बात कही। आयोग ने फिलहाल किसी निर्णय की घोषणा नहीं की है, लेकिन संभावना जताई जा रही है कि अक्टूबर-नवंबर में 243 सीटों पर चुनाव हो सकते हैं।
बुर्का पहनने वाली महिलाओं की पहचान सुनिश्चित हो
बैठक में सबसे चर्चित मुद्दा रहा बुर्का पहनकर मतदान करने वाली महिलाओं की पहचान का। बिहार बीजेपी अध्यक्ष दिलीप जायसवाल के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने आयोग से आग्रह किया कि मतदान केंद्रों पर बुर्का या पर्दा पहने महिलाओं की पहचान उनके मतदाता पहचान पत्र (EPIC) से सख्ती से मिलाई जाए। बीजेपी का तर्क है कि इससे फर्जी वोटिंग पर रोक लगेगी और मतदान प्रक्रिया अधिक पारदर्शी होगी। जायसवाल ने बैठक के बाद कहा, “हमने चुनाव आयोग से अनुरोध किया है कि चुनाव एक या अधिकतम दो चरणों में कराए जाएं। चरणबद्ध चुनाव की जरूरत नहीं है। साथ ही बुर्का पहनकर आने वाली महिलाओं की पहचान का सत्यापन अनिवार्य होना चाहिए ताकि कोई फर्जी वोट न डाल सके।”
आरजेडी का पलटवार,‘बीजेपी अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही’
बीजेपी की इस मांग ने बिहार की सियासत में एक नई बहस छेड़ दी है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने इसे सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित बताते हुए कड़ी आपत्ति जताई है। आरजेडी के प्रदेश प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा, “बीजेपी चुनाव से पहले धार्मिक ध्रुवीकरण का माहौल बनाना चाहती है। हाल ही में मतदाता सूची का विशेष संशोधन (SIR) हुआ है, जिसमें नई फोटो सहित ईपीआईसी कार्ड जारी किए गए हैं। पहचान को लेकर कोई समस्या नहीं है, लेकिन बीजेपी अल्पसंख्यक महिलाओं को निशाना बनाकर वोट बैंक तोड़ने की कोशिश कर रही है।”
आरजेडी का आरोप है कि बीजेपी इस मुद्दे को मुस्लिम समुदाय को केंद्र में रखकर चुनावी लाभ के लिए उछाल रही है। पार्टी का कहना है कि अगर पहचान को लेकर कोई भ्रम होता भी है, तो मतदान केंद्रों पर महिला अधिकारी पहले से मौजूद रहती हैं जो मतदाताओं की पहचान सुनिश्चित करती हैं।
पुराना मुद्दा, नई बहस
बुर्का पहनकर वोट डालने को लेकर विवाद नया नहीं है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट किया था कि धार्मिक भावनाओं के नाम पर पहचान छिपाकर वोट डालना संभव नहीं है। कोर्ट ने कहा था कि हर मतदाता की पहचान फोटो वाले पहचान पत्र से मिलान करना अनिवार्य है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान भी दिल्ली बीजेपी ने यही मुद्दा उठाया था और बुर्का पहनने वाली महिलाओं की जांच की मांग की थी। तब भी विपक्षी दलों ने इसे धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास बताया था। अब वही बहस एक बार फिर बिहार चुनावों में लौट आई है, जहां मतदाता समीकरण और समुदाय आधारित वोट बैंक राजनीति की दिशा तय करते हैं।
चुनावी समीकरण और संभावित असर
बिहार की राजनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक हमेशा निर्णायक भूमिका निभाता है। आरजेडी और कांग्रेस जैसे दल इसे अपने पारंपरिक वोटर्स मानते हैं, जबकि बीजेपी और जेडीयू इस आधार को तोड़ने की कोशिश में रहते हैं। ऐसे में बुर्का पहनकर मतदान करने वाली महिलाओं की पहचान को लेकर उठी यह मांग चुनाव से पहले राजनीतिक माहौल को और गरमा सकती है। बीजेपी इसे ‘निष्पक्ष चुनाव’ की दिशा में उठाया गया कदम बता रही है, जबकि विपक्ष इसे ध्रुवीकरण की राजनीति कह रहा है।
आयोग की भूमिका
चुनाव आयोग ने अभी इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक आयोग इस मामले को ‘संवेदनशील’ मानकर सभी पक्षों से राय लेगा। आयोग का ध्यान इस समय निष्पक्ष और शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने पर है। अधिकारियों ने संकेत दिया है कि मतदाताओं की पहचान से जुड़ी प्रक्रियाएं पहले से तय हैं और उनका पालन हर मतदान केंद्र पर अनिवार्य है। अभी तक चुनाव की तारीखों की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन राजनीतिक माहौल से साफ है कि बिहार जल्द ही तीव्र चुनावी प्रचार के दौर में प्रवेश करने वाला है।
बुर्का पहनकर मतदान करने वाली महिलाओं की पहचान का मुद्दा अब राजनीतिक गर्मी का नया केंद्र बन गया है। एक ओर बीजेपी इसे पारदर्शिता की पहल बता रही है, तो दूसरी ओर आरजेडी इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश करार दे रही है। आयोग इस विवाद पर क्या रुख अपनाता है, यह देखना बाकी है, लेकिन इतना तय है कि बिहार का आगामी चुनाव सिर्फ राजनीतिक दलों की ताकत नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदनशीलता और चुनावी ईमानदारी की भी बड़ी परीक्षा होगा।
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