जॉली एलएलबी फ्रेंचाइज़ी हमेशा से ही अपने अलग अंदाज़ के लिए जानी जाती है। न इसमें मसालेदार गाने-नाच का तड़का होता है, न ही स्टारडम दिखाने की कोशिश, बल्कि इसकी असली ताकत है मजबूत कहानी और प्रभावी अदाकारी। यही वजह है कि तीसरे भाग से दर्शकों की उम्मीदें काफी ऊँची थीं। सवाल यह था कि क्या जॉली एलएलबी 3 पहले दो हिस्सों की बराबरी कर पाएगी?
कहानी की बुनियाद
लेखक-निर्देशक सुभाष कपूर एक बार फिर कोर्टरूम की दुनिया रचते हैं। इस बार मामला न तो किसी हिट-एंड-रन केस का है और न ही फर्जी मुठभेड़ का। कहानी की शुरुआत होती है राजस्थान के एक किसान की आत्महत्या से, जिसने ज़मीन खोने के बाद हताश होकर जान दे दी। यह मुद्दा 2011 के उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण आंदोलन से प्रेरित है।
इस जमीन पर उद्योगपति हरीभाई खेतान (गजराज राव) की नज़र है, जो बीकानेर से बोस्टन नामक टाउनशिप बसाने का सपना देखता है। इसी मामले में दोनों जॉली अर्शद वारसी और अक्षय कुमार आमने-सामने आते हैं और अदालत में शुरू होता है ज़बरदस्त कानूनी जंग।
पहला और दूसरा भाग
फिल्म की शुरुआत हल्की-फुल्की और सीधी-सादी लगती है। पुराने किरदार जैसे ही अपनी जगह पर लौटते हैं, दर्शक सहजता से कहानी में रम जाते हैं। इंटरवल से ठीक पहले का सीन जिस तरह का असर डालना चाहता है, वह उम्मीद के मुताबिक नहीं बैठता।
दूसरे हाफ में फिल्म अपनी असली ताकत दिखाती है। यहीं से न्याय की लड़ाई तेज़ होती है और कोर्टरूम ड्रामा अपने पूरे रंग में आता है। हालांकि संगीत इस बार कहानी को पीछे खींचता है। एक इमोशनल गाना जबरदस्ती ठूंसा गया लगता है, जो फिल्म की स्पीड को कमकर देता है।
एक्टिंग में कौन आगे?
फिल्म में कई जगहों पर र व्यंग्य से भरे डायलॉग भी हैं। एक बड़े उद्योगपति वीएम का जिक्र, जो कर्ज़ा लेकर लंदन भाग गया, दर्शकों को तुरंत असलियत की याद दिलाता है। यही छोटी-छोटी बातें फिल्म को ताजगी देती हैं। अक्षय कुमार अपने मस्तीभरे अंदाज़ और तीखे डायलॉग्स से कोर्टरूम को रोशन कर देते हैं। उनका लंबा भाषण क्लाइमेक्स में असर छोड़ता है।
अर्शद वारसी हमेशा की तरह सहज कॉमिक टाइमिंग लाते हैं और अक्षय के साथ उनकी जुगलबंदी देखना मज़ेदार है। गजराज राव अभिनय में दमदार हैं, लेकिन उनका विलेन कई बार घिसा-पिटा लगता है। असल कमी किरदार की लिखावट में है।
सौरभ शुक्ला एक बार फिर जज बनकर दिल जीत लेते हैं। उनका दबदबा याद दिलाता है कि यह फ्रेंचाइज़ी उनके बिना अधूरी है। सीमा बिस्वास (जांकी राजाराम सोलंकी) और राम कपूर अपने छोटे लेकिन अहम किरदारों में असर छोड़ते हैं।
जहाँ तक महिला कलाकारों की बात है, हुमा कुरैशी और अमृता राव को इस बार बेहद कम स्क्रीन टाइम मिला है। उनकी मौजूदगी केवल फॉर्मेलिटी सी लगती है।
कुल मिलाकर कर कहा जाए तो अगर आप कोर्ट रूप ड्रामा देखने के शौकीन हैं तो आपको ये फिल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए ।
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