संगीत की दुनिया आज उदास है। पंडित छन्नूलाल मिश्र अब हमारे बीच नहीं हैं। 2 अक्टूबर 2025 को सुबह 4:15 बजे उन्होंने आखिरी सांस ली। 91 साल की उम्र में मिर्जापुर के अपने घर में ये हुआ। कुछ दिन से बीमार थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अस्पताल में इलाज चला। फिर बेटी नम्रता के घर आए। डॉक्टर देख रहे थे। लेकिन वक्त ने साथ छोड़ दिया। ठुमरी और खयाल गायकी के बादशाह थे। उनकी आवाज में गंगा की लहरें थीं। काशी की मिट्टी की खुशबू थी। हर गाना दिल को छूता था। संगीत प्रेमी रो रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनकी तारीफें हो रही हैं। आइए, आसान शब्दों में उनकी कहानी जानें, जैसे घर में बात हो रही हो।
आजमगढ़ से काशी का सफर
पंडित जी का जन्म 3 अगस्त 1936 को आजमगढ़ के हरिहरपुर गांव में हुआ। घर का नाम बद्री प्रसाद मिश्र था। पिता से संगीत की पहली सीख मिली। छोटे-छोटे राग सीखे। फिर किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान ने सिखाया। बनारस की गलियों में ठुमरी की धुनें सुनीं। पुरब अंग को अपनाया। किराना-बनारस घराने के चमकते सितारे बने। पंडित अनोखेलाल मिश्र के दामाद थे, जो तबला के उस्ताद थे। काशी ने उन्हें गढ़ा। गंगा किनारे रियाज किया। हर सुबह रागों की साधना। ये उनकी जिंदगी थी।
ठुमरी-खयाल का जादू
पंडित जी की गायकी में जादू था। ठुमरी को नई जान दी। पुरब अंग में कजरी, चैती गाए। तुलसीदास के रामचरितमानस के भजन। कबीर के दोहे। उनकी आवाज गहरी थी। भाव से भरी। खयाल गाते तो रूह कांपती। बनारस की शामें उनकी धुनों से रंगीन थीं। संगीत सभाओं में राजा थे। श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। ठुमरी में राधा-कृष्ण की लीला बुनते। खयाल में रागों का समंदर खोलते। सुनकर लगता जैसे स्वर्ग उतर आया।
सम्मानों की बौछार
देश ने उनके काम को सराहा। 2010 में पद्मभूषण मिला। 2020 में पद्म विभूषण। ये भारत के बड़े सम्मान हैं। सुर सिंहारा पुरस्कार, बॉम्बे का शिरोमणि, उत्तर प्रदेश और बिहार के संगीत पुरस्कार। नौशाद अवॉर्ड भी मिला। संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप मिली। वे कहते थे कि संगीत भगवान का तोहफा है। सम्मान तो बस सिलाई। काशी में उनके लिए जश्न हुआ। युवा गायक उन्हें गुरु मानते।
फिल्मों में भी धमाल
पंडित जी सिर्फ शास्त्रीय संगीत तक नहीं रुके। 2011 में प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण में गाए। ‘सांस अलबेली’ और ‘कौन सी डोर’ गाने गाए। आमिर खान की फिल्म थी। लोगों ने खूब पसंद किया। शास्त्रीय संगीत को जन-जन तक पहुंचाया। उनकी रिकॉर्डिंग्स आज भी बजती हैं। राम भजन, कबीर दोहे, चैती, कजरी। सब अमर हैं। कोविड में दुख झेले। 2021 में पत्नी माणिक रानी और बेटी संगीता गईं। लेकिन वे टूटे नहीं। संगीत में डूबे रहे।
काशी से गहरा नाता
काशी उनका दिल थी। 2014 में नरेंद्र मोदी के लोकसभा चुनाव प्रस्तावक बने। वाराणसी से मोदी लड़े। पंडित जी ने समर्थन दिया। मिर्जापुर में घर था। लेकिन काशी में जीते थे। गंगा आरती देखते। घाटों पर बैठते। संगीत सिखाते। अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर होगा। लोग श्रद्धांजलि देंगे। उनकी धुनें रेडियो, यूट्यूब पर गूंजेंगी।
साधना का राज
पंडित जी की साधना कमाल थी। रोज रियाज। सुबह से शाम। तबला और वायलिन की संगत। किराना-बनारस का मेल। ठुमरी में भाव डाले। खयाल में गहराई। उनकी आवाज में भक्ति थी। वे कहते थे, संगीत से डर भागता है। 91 साल तक गाए। बीमारी में भी हिम्मत रखी।
अमर विरासत
पंडित जी की कहानी प्रेरणा है। आजमगढ़ से निकले। ठुमरी को नया रंग दिया। बेटी नम्रता कहती हैं, उनकी आवाज कभी नहीं मरेगी। काशी की धुनें जिंदा रहेंगी। लोग गीत गाएंगे। ठुमरी सुनाएंगे। पंडित जी ऊपर से मुस्कुराएंगे।
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