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बिहार चुनाव में दलित वोट बैंक: महागठबंधन और NDA की रणनीति

बिहार विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और दोनों प्रमुख गठबंधनों,एनडीए और महागठबंधन की नजरें दलित वोट बैंक पर टिकी हुई हैं। दोनों पार्टियों ने अपनी रणनीति तैयार कर ली है।

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बिहार विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और दोनों प्रमुख गठबंधनों – एनडीए और महागठबंधन की नजरें दलित वोट बैंक पर टिकी हुई हैं। बिहार में दलित वोटर्स की आबादी करीब 20 फीसदी है, जो किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाती है। इस महत्वपूर्ण वोट बैंक को साधने के लिए दोनों ही खेमे अपनी-अपनी रणनीति पर काम कर रहे हैं।

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NDA का दलित चेहरा

NDA के पास पहले से ही दो बड़े दलित चेहरे मौजूद हैं: चिराग पासवान और जीतन राम मांझी। ये दोनों नेता अपने-अपने समाज के वोटों को एनडीए के पक्ष में लाने का प्रयास करते हैं। मौजूदा विधानसभा में, कुल 40 आरक्षित सीटों में से 21 पर एनडीए का कब्जा है, जिसमें से बीजेपी के 9 और जेडीयू के 8 विधायक दलित समुदाय से आते हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि एनडीए का दलित वोट बैंक पर एक मजबूत पकड़ है, जिसे वे आगामी चुनाव में और मजबूत करना चाहेंगे।

महागठबंधन का दलित कार्ड

महागठबंधन भी इस वोट बैंक में सेंध लगाने की पूरी कोशिश कर रहा है। कांग्रेस ने हाल ही में अपने प्रदेश अध्यक्ष पद से भूमिहार जाति के अखिलेश प्रसाद सिंह को हटाकर दलित समुदाय के राजेश राम को कमान सौंपी है। यह फैसला स्पष्ट रूप से दलितों, खासकर रविदास समाज को लुभाने के लिए लिया गया है, जिनकी आबादी बिहार में दलितों में सबसे अधिक (31 फीसदी) है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में राजेश राम को प्रमुखता देना भी इसी रणनीति का हिस्सा है।

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वहीं, आरजेडी और उसके सहयोगी दल भी दलित वोट बैंक को वापस अपनी तरफ खींचने में लगे हैं। 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव का एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण दलितों का भी समर्थन हासिल करता था, लेकिन समय के साथ यह पकड़ कमजोर होती गई। आरजेडी अब इस स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास कर रही है। 2020 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनावों में भाकपा माले को साथ लेने का फायदा भी महागठबंधन को मिला है। माले का शाहाबाद जैसे इलाकों में दलित वोटों पर मजबूत प्रभाव है, जिसका लाभ तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिला है।

दलित वोट बैंक का गणित

बिहार में दलित वोटर्स की 20 फीसदी आबादी में कई जातियां शामिल हैं। इनमें रविदास (31%), पासवान (30%) और मुसहर (मांझी) (14%) प्रमुख हैं। इन तीनों जातियों की संख्या हर विधानसभा क्षेत्र में इतनी है कि वे चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकती हैं।

रविदास समाज: बिहार के दलितों में सबसे बड़ी आबादी रविदास समाज की है। कांग्रेस का राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाना इसी समाज को आकर्षित करने की रणनीति है। हालांकि, उत्तर प्रदेश से सटे सीमावर्ती जिलों में रविदास वोटर्स अक्सर बसपा का समर्थन करते रहे हैं, जिससे कांग्रेस के लिए यह एक चुनौती भी है। पासवान समाज: पासवान जाति की आबादी भी काफी बड़ी है और चिराग पासवान के रूप में उनका एक बड़ा चेहरा एनडीए के साथ है। मुसहर समाज: जीतन राम मांझी मुसहर समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो एनडीए के लिए एक और मजबूत स्तंभ है।

आरक्षित और सामान्य सीटों पर प्रभाव

बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में से 40 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों पर दोनों गठबंधनों के बीच कड़ी टक्कर होती है। लेकिन इन आरक्षित सीटों के अलावा, सामान्य सीटों पर भी दलित वोटर्स की भूमिका निर्णायक होती है। ग्रामीण इलाकों में दलितों का वोटिंग व्यवहार अक्सर सामाजिक बनावट और जमीनी समीकरणों पर निर्भर करता है, जिसे दोनों ही गठबंधन अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं।

कुल मिलाकर, आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में दलित वोट बैंक एक निर्णायक कारक साबित होगा। कांग्रेस का राजेश राम पर दांव और आरजेडी का माले के साथ गठबंधन, दोनों ही महागठबंधन की दलितों को लुभाने की नई रणनीति का हिस्सा हैं। वहीं, एनडीए अपने मौजूदा दलित चेहरों के दम पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश करेगा। चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि कौन सा गठबंधन इस महत्वपूर्ण वोट बैंक को अपने पाले में लाने में सफल होता है।

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