शफीक सैयद, जिन्होंने फिल्म ‘सलाम बॉम्बे!’ में बतौर बाल कलाकार राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था, आज बेंगलुरु में ऑटो रिक्शा चलाकर अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं। कभी अपनी दिल छू लेने वाली अभिनय क्षमता के लिए अंतरराष्ट्रीय सराहना पाने वाले शफीक की ज़िंदगी अब गुमनाम संघर्षों की दास्तान बन चुकी है।
1988 में आई मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बॉम्बे!’ भारतीय सिनेमा की एक ऐतिहासिक फिल्म मानी जाती है, जिसने मुंबई की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की कड़वी सच्चाई को दिखाया। उस वक्त केवल 12 साल के शफीक सैयद ने कृष्णा (चायपाव) का किरदार निभाया था उनका मासूम चेहरा, भावुक आंखें और सच्चे अभिनय ने दर्शकों का दिल जीत लिया था।
परंतु यह प्रसिद्धि लंबे समय तक नहीं टिक सकी। इसके बाद उन्होंने सिर्फ एक और फिल्म ‘पतंग’ (1994) की और फिर उनका फिल्मी सफर थम गया। बताया जाता है कि शूटिंग के दौरान उन्हें केवल ₹20 रोज़ाना मिलते थे और खाने में सिर्फ एक वड़ा मिलता था।
फिर 1990 के दशक की शुरुआत में वे वापस बेंगलुरु लौट आए। अभिनय के क्षेत्र में स्थायी अवसर न मिलने के कारण उन्होंने ऑटो रिक्शा चलाना शुरू कर दिया ताकि अपनी मां, पत्नी और चार बच्चों का पालन-पोषण कर सकें। उन्होंने कुछ समय के लिए कन्नड़ टीवी सीरियल्स में कैमरा असिस्टेंट के तौर पर भी काम किया, लेकिन वहां भी स्थायित्व नहीं मिला।
अपने जीवन के संघर्ष पर बोलते हुए शफीक कहते हैं, “एक समय था जब मुझ पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। आज पूरा बोझ मेरे कंधों पर है।” भले ही शोहरत पीछे छूट गई हो, लेकिन पिता के रूप में उनकी जिम्मेदारी और संघर्ष आज भी जारी है।
शफीक सैयद की कहानी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री पर कई सवाल उठाती है , क्या वजह रही कि इतना प्रतिभाशाली अभिनेता भुला दिया गया? क्या यह वर्गभेद था? या फिर एक मज़बूत नेटवर्क और सपोर्ट सिस्टम की कमी? उन्हें सिर्फ एक झुग्गी में रहने वाला बच्चा समझा गया, ना कि एक भावुक और सशक्त कलाकार।
आज शफीक ने अपनी ज़िंदगी के सफर पर एक 180 पेज की आत्मकथा लिखी है, जिसका नाम है ‘आफ्टर सालाम बॉम्बे’। वे चाहते हैं कि एक दिन इस पर भी फिल्म बने। उनका कहना है , “मेरी ‘सलाम बॉम्बे’ स्लमडॉग मिलियनेयर से ज्यादा सच्ची होगी।”
भले ही उनके सितारे अब चमकते नहीं, लेकिन उनका हौसला आज भी रौशन है, वे मेहनत कर रहे हैं, तालियों के लिए नहीं, बल्कि अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए।